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काला धन और हमारी सरकार !

मजेदार दुनिया
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मनोज जैसवाल :’कथित’ भारतीय देशभक्तों के विदेशी बैंकों में जमा लाखों करोड़ रुपए की चर्चा दशकों पुरानी है। बोफोर्स तोप दलाली कांड के बाद से इसमें कुछ उबाल आया, लेकिन सरकारी लीपापोती के कारण मामला ठंडे बस्ते में चला गया। देश की सबसे बड़ी जांच एजेंसी-सीबीआई की एक ह्यूमन एरर के कारण इंग्लैंड के एक बैंक में सबूत के तौर पर जमा रकम भी इतालवी व्यापारी ओटावियो क्वात्रोकी के खाते में पलक झपकते ट्रांसफर हो गई। विपक्षी पार्टियों द्वारा मचाये गये हल्ले के बाद सरकार ने सीबीआई की खबर लेने का वचन दिया परन्तु नतीजा अब तक हासिल सिफर है। सरकार और उसके बाबुओं की इस करतूत से देश के लोगों को इस बात का पक्का यकीन हो गया कि अपराधी वह जो पकड़ा जाये। जो गिरफ्त में न आये या जिसे गिरफ्त में लेने की कोशिश न की जाये वह गाय के निखालिस दूध से धुला हुआ माना जाता है। वैसे भी सत्तारूढ़ दल (चाहे उसका ताल्लुक किसी भी पार्टी से हो) ऐसे आरोपों को विपक्ष की हताशा और चरित्र हनन की संज्ञा देकर मुक्ति पा लेता है। अखबारों, टीवी चैनलों पर कुछ दिनों तक गलाफाड़ बहस के बाद मुद्दा अपनी मौत मर जाता है और फिर किसी नये मुद्दे की तलाश शुरू हो जाती है। देश की तीन चौथाई आबादी की हालत लगातार बद से बदतर होते चले जाने के कारणों की पड़ताल के बाद एक ओर अन्ना हजारे जी एंव बाबा राम देव काले धन को लेकर सारे देश में घूम-घूम कर अलख जगा रहे हैं तो दूसरी ओर सुप्रीम कोर्ट सरकार से बार-बार उन लोगों का नाम सार्वजनिक करने आग्रह कर रहा है जिन्होंने आजादी के बाद अपनी काली कमाई को विदेशी बैंकों के गुप्त खातों में जमा कर रखा है। इस सवाल का सरकार की ओर से कोई सीधा जवाब न देना और मामले को टैक्स चोरी के अपराध से जोड़ देना न कोर्ट की समझ में आ रहा और न ही तथाकथित बुद्धिजीवियों के देश के ज्यादातर लोगों को तो यही मालूम नहीं कि आखिर काला धन होता क्या है और वह क्यों और कैसे बनाया जाता है। इसके कुछ सूत्र महान संसदीय लोकतांत्रिक प्रणाली के गर्भ में ढूंढ़े जा सकते हैं। प्रजातंत्र के नाम पर होने वाले पांच साला (कभी-कभी ढाई साला) चुनावी प्रहसन में आम आदमी से शासन करने का जनादेश मांगा जाता है। इस दौरान देवी धन लक्ष्मी गरीब दास की झोंपड़ी की परिक्रमा करती नजर आती हैं और ‘यज्ञ’ की पूर्णाहुति के पश्चात उसके सारे दुखों से मुक्ति का आश्वासन देकर अंतर्धान हो जाती हैं। अंगूरी के आगोश में लिपटा या कदाचारी कंबल ओढ़े- ओढ़े बेचारा गरीब दास अपनी उन्नत दशा के सपने देखता हुआ लोक यज्ञ में अपने अंगूठे को होम करके अगले यज्ञ तक भटकता रह जाता है। उसे तो यह भी समझ नहीं आता कि जो अंगूरी उसने उदरस्थ की या जो कंबल ओढ़ कर उसने अपनी सनातन सर्दी दूर की उसका इंतजाम किसने और कैसे किया? लाखों, करोड़ों रुपए खर्च कर आम आदमी के साथ अमुक का हाथ होने का छलावा करने वाली पार्टियां पिछले पांच दशक से यह नहीं बता पाई हैं कि इतने भारी-भरकम चुनावी खर्च का इंतजाम करने के लिए उन्होंने कौन-सी टकसाल लगा रखी है जहां से वांछित रकम उनकी थैलियों में खनखना कर गिरने लगती है? जिस दिन से एक वोटर के रूप में गौरवान्वित होने का अवसर इस ब्लॉगर को मिला है, इसके सामने किसी भी राजनीतिक दल का कोई कार्यकर्ता चुनावी चंदा मांगने कभी नहीं आया। अलबत्ता धमकी दे कर कि आपका काम धंदा बंद करबा देने की बात तो लगभग सभी राजनीतिक दल के “कथित” कार्यकर्त्ता जब तब आते ही रहते है । पूर्वज अवश्य चर्चा किया करते थे कि फलां शख्स चवन्निया मेम्बर है, फलां अठन्निया और फलाने साहब तो पूरे सोलह आने के सदस्य हैं। मेरे मन में उनकी बातों से कौतूहल उत्पन्न होता कि काश मैं भी कभी किसी रैंक की मेम्बरी हासिल कर पाता। बचपन में देखा गया वह ख्वाब आज तक तो हकीकत में तब्दील नहीं हो पाया, मुस्तकबिल में होगा, इसकी उम्मीद तो काफी है यकीं कुछ कम है। कहने का अर्थ यह कि अब सियासी दलों के पास गली-गली में घूम कर जन सम्पर्क के जरिये इलेक्शन फंड जमा करने की फुरसत नहीं है। यह काम अब सौदेबाजी के जरिये अंजाम दिया जाता है- देसी उद्योगपतियों, पूंजीपतियों को सत्ता में आने पर उनके चंदे की भरपाई के आश्वासन के साथ और विदेशी थैलीशाहों का एक्सपायर्ड कचरा खरीदने से मिलने वाली किक बैक के रूप में। होता यह है कि किक आम आदमी पर पड़ती है और बैक मजबूत होती है उस दल की जो पैसे के बल पर प्रचार में बाजी मार ले जाता है। इसी बिन्दु पर ‘मुंह खाये आंख लजाये’ जैसा मुहावरा अपनी सार्थकता सिद्ध करने का अवसर प्राप्त करता है। जिसने वोट दिया वह दाता होकर भी भिखारी और जिसने नोट दिया वह अंगुलिमाल बनने का अधिकारी। ऐसे ही अंगुलिमालों को संरक्षण देने में हमारी सरकारें शीर्षासन करती नजर आती रही हैं। वे एक के बदले एक करोड़ वसूलें या एक अरब, उनका हाथ पकड़ने वाला कोई नहीं है। हां, उन्हें लाभ पहुंचाने वाले देसी कानूनों की कुछ धारायें अगर देश में उनके काले धन की राह में रोड़ा बनती हैं तो वे उसे हवाला के जरिये विदेशी बैंकों के गुप्त खातों में पहुंचा देते हैं और सरकार अदालत को हीला- हवाला बताकर टाइम पास करती जाती है। अगर प्रतिपक्षी इस मसले पर हो-हल्ला मचाते हैं तो वित्त मंत्री उनके चित्त को दुरुस्त करने के लिए उन्हें ‘माओवादी’ बन जाने का मशवरा मुफ्त में परोस देते हैं। सोने की चिड़ियां अपनी दुर्दशा पर आंसू बहाने के अलावा और कर ही क्या सकती है।

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